दुनियाभर में लगभग 45 प्रतिशत डेटा सेंटर ऐसे नदी घाटियों में स्थित हैं, जहाँ पहले से ही पानी की उपलब्धता का गंभीर खतरा बना हुआ है।
जैसे-जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) चैटबॉट्स से लेकर जलवायु मॉडलिंग तक रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बनता जा रहा है, उसे संभालने और चलाने के लिए ज़रूरी भौतिक ढांचा भी तेज़ी से बढ़ रहा है।
लेकिन इस AI विस्तार की एक अनदेखी कीमत भी है—पानी।
AI सिस्टम्स को ठंडा रखने और डेटा सेंटर्स के संचालन के लिए भारी मात्रा में जल संसाधनों की जरूरत होती है, जिस पर अक्सर ध्यान नहीं दिया जाता।

अब तक की बहस मुख्य रूप से इस सेक्टर की भारी बिजली खपत पर केंद्रित रही है, लेकिन एक नई स्टडी के अनुसार शोधकर्ताओं का कहना है कि डेटा सेंटर अब बड़ी मात्रा में मीठे पानी का उपयोग करने लगे हैं। यह स्थिति ऐसे समय में सामने आई है जब दुनिया पहले से ही जल संकट का सामना कर रही है।
रिपोर्ट में बताया गया है कि ChatGPT या Google Gemini जैसे AI सिस्टम को सपोर्ट करने वाले डेटा सेंटर्स तेजी से उन इलाकों में स्थापित हो रहे हैं, जहां पहले से ही पानी की भारी कमी है। विशेषज्ञों का मानना है कि इससे स्थानीय लोगों, पर्यावरण और खुद AI इंडस्ट्री के लिए भी खतरा पैदा हो सकता है।
AI को इतनी ज़्यादा पानी की ज़रूरत क्यों होती है?
AI मॉडल बेहद बड़े डेटा सेंटर्स पर निर्भर होते हैं, जहां हजारों सर्वर दिन-रात लगातार चलते रहते हैं। इन सर्वरों से काफी गर्मी पैदा होती है, जिसे नियंत्रित करने के लिए लगातार कूलिंग की जरूरत पड़ती है।
आज भी सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होने वाली कूलिंग तकनीकें मीठे पानी पर निर्भर हैं। इस प्रक्रिया में पानी का बड़ा हिस्सा या तो वाष्पीकरण से खत्म हो जाता है, या फिर ऐसा अपशिष्ट जल बन जाता है जिसे दोबारा आसानी से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
अध्ययन के मुताबिक, दुनिया भर में लगभग 45 प्रतिशत डेटा सेंटर्स ऐसे नदी बेसिन क्षेत्रों में स्थित हैं, जहां पानी की उपलब्धता पहले से ही जोखिम में है।

अमेरिका में स्थित डेटा सेंटर्स ने वर्ष 2023 में लगभग 66 अरब लीटर पानी की खपत की। इस कुल खपत का बड़ा हिस्सा सीधे तौर पर डेटा सेंटर सुविधाओं के संचालन में इस्तेमाल हुआ।
चिंता केवल प्रत्यक्ष जल उपयोग तक सीमित नहीं है, बल्कि बिजली उत्पादन के दौरान होने वाली अप्रत्यक्ष पानी की खपत भी एक बड़ी वजह है। कई मामलों में यह अप्रत्यक्ष उपयोग किसी डेटा सेंटर के कुल जल पदचिह्न का लगभग 75 प्रतिशत तक हो सकता है।
जल संकट और डेटा सेंटर
ये निष्कर्ष ऐसे समय सामने आए हैं जब दुनिया भर में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) में निवेश तेज़ी से बढ़ रहा है और नए-नए AI चैटबॉट व डिजिटल एप्लिकेशन बाजार में उतर रहे हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार, लगभग 100 शब्दों का एक AI प्रॉम्प्ट तैयार करने में एक बोतल पानी के बराबर जल की खपत होती है।
एशिया से लेकर अमेरिका और यूरोप तक, बड़े-बड़े डेटा सेंटर उन इलाकों में बनाए जा रहे हैं जहां पहले से ही सूखा, भूजल स्तर में गिरावट और जल प्रदूषण जैसी गंभीर समस्याएं मौजूद हैं।
अध्ययन में भारत, चीन, स्पेन और जर्मनी जैसे देशों को उन स्थानों में शामिल किया गया है, जहाँ पानी की उपलब्धता को लेकर चिंताएँ बढ़ते डेटा सेंटर विस्तार से जुड़ रही हैं।
भारत में पानी की कमी का संकट लगातार गंभीर होता जा रहा है। वहीं, एआई की बढ़ती लोकप्रियता और मांग का सीधा असर जल संसाधनों पर पड़ रहा है। इससे पानी का उपयोग तेज़ी से बढ़ रहा है, जो अन्य क्षेत्रों और उन लोगों की आजीविका को नुकसान पहुँचा सकता है जो मीठे पानी पर निर्भर हैं।
अंधा पहलू (ब्लाइंड स्पॉट)
रिपोर्ट की सबसे कड़ी टिप्पणियों में से एक पारदर्शिता की भारी कमी को लेकर थी।

अध्ययन का निष्कर्ष है कि एआई कम-कार्बन भविष्य में सकारात्मक भूमिका निभा सकता है, लेकिन तभी जब उसकी बुनियादी संरचना को पर्यावरण को ध्यान में रखकर तैयार किया जाए।
डेटा सेंटर कहां स्थापित किए जाएं, इस पर अधिक समझदारी और दूरदर्शिता के साथ निर्णय लेने की आवश्यकता है।
इसके अलावा, कम पानी खपत करने वाली कूलिंग तकनीकों को अपनाने और रिपोर्टिंग से जुड़े स्पष्ट मानक तय करने से सीमित प्राकृतिक संसाधनों को लेकर होने वाले टकराव को कम किया जा सकता है।
जैसे-जैसे एआई का दायरा बढ़ रहा है, अब सवाल सिर्फ यह नहीं रह गया है कि ये प्रणालियां कितनी स्मार्ट हैं, बल्कि यह भी है कि इनके पीछे मौजूद ढांचा कितना टिकाऊ और पर्यावरण-अनुकूल है।
